
कोविडनामा/ ये कहानियाँ उन बच्चे-बच्चियों और किशोरों-तरुणों की आवाज़ हैं, जो बहुमंज़िला इमारतों से घिरे शहरी मज़दूरों के रिहाइशी इलाक़ों में जीते हुए एक नई ज़ुबान और अपनी अभिव्यक्ति के नए रास्ते तलाश रहे हैं। कोविड-19 के नाम से जानी-पहचानी गई महामारी के दरमियान ये रिहाइशें सबसे ज़्यादा प्रभावित रहीं, लेकिन इस यातना और संघर्ष का दस्तावेज़ हमारी समकालीनता में लगभग अनुपस्थित है। अंकुर समूह के इन कहानीकारों ने इस अनुपस्थिति को अपनी अभिव्यक्ति से भरा है। इन कहानियों में देखने, समझने, बूझने, भोगने और कहने की आश्चर्यजनक अपील है। हमारी नई पेशकश ‘अंकुर वाणी’ के अंतर्गत इन कहानियों को सुनते हुए आप आपदा के उस पक्ष से रूबरू होंगे, जो प्रायः दृश्य में होते हुए भी दृश्य में दर्ज होने से रह जाता है।
पहली क़िस्त // बड़े लोगों की बिमारी
इस पॉडकास्ट में तहरीन बता रही हैं कि घने मज़दूर मोहल्ले में सामाजिक दूरी बरतना असंभव था। घरों के अंदर शौचालय का न होना एक बड़ी समस्या है। सार्वजनिक शौचालय में गंदगी की वजह से कोरोना के भी फैलने की संभावना थी, उस डर से बहुत से लोग खाने से भी परहेज रखने लगे। प्रत्येक घर में शौचालय की मौजूदगी का फ़र्क़ के कारण ही, घनी बस्तियों में रहनेवाले लोगों, स्वास्थ्य संबंधी जटिलताओं में फँसना पड़ता है।
दूसरी क़िस्त // बहुत अकेली हो गई रोजा
कोरोना महामारी के दौरान ऐसे भी दृश्य देखने को मिले – एक रोज़गारशुदा लड़की ने अपना काम खोया. घर-परिवार में दूसरा और कोई न होने की वजह से बीमार माँ का इलाज भी मुश्किल हो रहा। कोरोना होने के शक में आसपड़ोस के लोग भी अलग हो रहे। ‘बहुत अकेली हो गई रोज़ा’ भी ऐसी ही एक हक़ीक़त भरी कहानी है।
तीसरी क़िस्त // कोरोना में घर
नौशाद मियाँ ही परेशानी में न थे बल्कि पूरी दुनिया थी. काम-धंधे बंद थे, आना-जाना बंद था. रहना था तो घर नाम के घेरे में। बच्चों के पास माता-पिता थे तो निगरानी की तलवार भी उन्हीं बच्चों पर लटक रही थी। घर था और एक टी.वी. देखने की ख्वाहिश सबकी अलग-अलग। पिता को न्यूज सुनना है, माँ को नाटक देखना है और बच्चों को कार्टून सीरियल्स। झल्लाहट सबके सिर में नाचता हुआ. एक जगह रहते हुए सबकी इच्छाएँ एक-दूसरे से टकराती हुईं। रिचार्ज के पैसे ख़त्म, खाने-पीले की किल्लत और ख़ाली आँखों समय बिताने का संकट. इन सबका कारण–महामारी।
लेख : तहरीन
आवाज़ : ज़ेबा